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निबंध

अम्बेडकर की पत्रकारिता

कृपाशंकर चौबे


बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का मानना था कि दलितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका स्वयं का मीडिया अनिवार्य है। उसी अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए डॉ. अम्बेडकर ने 31 जनवरी 1920 को दलितों का अपना समाचार पत्र 'मूकनायक' प्रकाशित किया। 'मूकनायक' यानी मूक लोगों का नायक। 'मूकनायक' मराठी भाषा में निकलनेवाला पाक्षिक समाचार पत्र था। 'मूकनायक' के 31 जनवरी 1920 के अंक में यानी प्रवेशांक में डॉ. अम्बेडकर ने मनोगत शीर्षक अग्रलेख में लिखकर बताया था कि उस अखबार को वे क्यों निकाल रहे हैं। उन्होंने लिखा था,"हमारे बहिष्कृत लोगों पर जो अन्याय हो रहा है और आगे होनेवाली ज्यादतियों से बचाने के लिए तथा भविष्य में होनेवाले उनके उन्नयन के यथार्थ रूप की चर्चा के लिए कोई समाचार पत्र नहीं है। मुम्बई से प्रकाशित समाचार पत्र सवर्णों के हित की रखवाली करनेवाले हैं। उन्हें अन्य जाति के हितों की कोई परवाह नहीं। कभी-कभार उनमें हमारे विरुद्ध भी बातें छापी जाती हैं। ऐसे अखबारों को हम यही बताना चाहते हैं कि यदि किसी एक जाति का विकास नहीं हुआ तो उसके पतन का दाग अन्य जातियों तक भी पहुँचता है। समाज एक नाव है। जिस तरह नाव में यात्रा करनेवाले किसी यात्री ने जानबूझकर दूसरों का नुकसान करने के मकसद से या उनमें खलबली मचाने के लिए अपनी विनाशकारी प्रकृति से यदि नाव में छेद किया तो सम्पूर्ण नाव के साथ उसे भी पहले या बाद में गहरे जल की गहराई में डूबना पड़ेगा।" 1 उसी संपादकीय में बाबा साहेब ने वैसे इस पर प्रसन्नता जताई थी कि 'दीनमित्र', 'जागरूक', 'डेक्कन रैयत', 'विजयी मराठा', 'ज्ञान प्रकाश', 'इन्दु प्रकाश' और 'सुबोध पत्रिका' आदि समाचारपत्रों में बहिष्कृत समाज के प्रश्नों पर सामग्री छापी जाती है किंतु उसमें बहिष्कृतों के प्रश्नों के लिए यथेष्ठ स्थान मिलना संभव नहीं है इसीलिए बहिष्कृतों के लिए एक स्वतन्त्र अखबार का जन्म हुआ है। सम्पादकीय टिप्पणी में डॉ. अम्बेडकर ने यह भी कहा था, "खास अछूतों के हितों की रक्षा के लिए 'सोमवंशीय मित्र', 'हिन्द नागरिक', 'विटाल विध्वंसक' आदि अखबार निकले और बन्द हो गए। लेकिन ग्राहकों की ओर से उचित सहयोग मिलता रहा तो 'मूकनायक' जैसा अखबार बगैर लड़खड़ाए स्वजनोद्धार का महान कार्य करनेवालों को सही राह दिखाएगा, यह आश्वासन देते हुए मैं अपने निवेदन को यहीं समाप्त कर रहा हूँ।" 2

डॉ. अम्बेडकर की चिंता थी कि कुरीतियों को कैसे समाप्त किया जाए और अछूतों को कैसे नागरिक अधिकार दिलाए जांए। 'मूकनायक' के 28 फरवरी, 1920 के अंक में 'यह स्‍वराज नहीं, यह तो हम पर राज है' शीर्षक अग्रलेख में डॉ. अम्बेडकर ने लिखा था,"जो सामाजिक कुरीतियाँ सवर्णों के लिए पोषक हैं, वे कुरीतियाँ इन अछूतों के लिए इतनी खतरनाक साबित हुई हैं कि उससे यह वर्ग अपने नागरिक अधिकारों को भी प्राप्त नहीं नहीं कर सका। किसी भी व्यक्ति को नागरिक कहलाने के लिए कुछ हक़ होने आवश्यक हैं। जैसे (1) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, (2) व्यक्तिगत संरक्षण, ( 3) व्यक्तिगत सम्पत्ति रखने का अधिकार, (4) कानून के सम्बन्ध में समानता, (5) सद्-असद् विवेक, बुद्धि के अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता, (6) अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और मत स्वतन्त्रता, (7) सभा करने का अधिकार, (8) देश की शासन व्यवस्था में प्रतिनिधि भेजने का अधिकार और, (9) सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार। किंतु इनमें से कोई अधिकार अछूतों को हासिल नहीं हैं।" 3 स्वराज्य पर डॉ. अम्बेडकर का चिंतन लंबे समय तक चला। 27 मार्च 1920 को प्रकाशित 'मूकनायक' के पांचवें अंक की संपादकीय का शीर्षक हैः 'स्वराज्य में हमारा आरोहण, उसका प्रमाण और पद्धति।' उसमें डॉ. अम्बेडकर ने मुख्यतः पांच बिंदुओं को उठाया हैः 1. भारत एक सत्तात्मक या प्रजा सत्तात्मक न होकर प्रजा प्रतिनिधि सत्तात्मक राज्य होनेवाला है। इस प्रकार के राज्य में स्वराज्य होने के लिए मतदान का अधिकार विस्तृत किया जाना चाहिए और जातिवार प्रतिनिधित्व देना चाहिए। 2. हिंदू धर्म ने कुछ जातियों को श्रेष्ठ व वरिष्ठ व कुछ को कनिष्ठ और अपवित्र ठहराया है। स्वाभिमान रहित निचली जातियों के लोग सवर्ण जातियों को पूज्य मानते हैं और शील शून्य सवर्ण जाति के लोग नम्र भाव रखनेवाली इन जातियों को नीच मानते हैं। 3. दलित उम्मीदवार को ऊंची जाति का मतदाता नीच समझकर मत नहीं देगा और आश्चर्य की बात यह है कि ब्राह्मणेतर और बहिष्कृत लोग बाह्मण सेवा का सुनहरा संयोग आया देख पुण्य संचय करने के लोभ में उनके पैरों में गिरने को दौड़ पड़ेंगे। 4. हरेक व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिलने पर चुनाव की पद्धति से, संख्या के अनुपात से जातिवार प्रतिनिधित्व देना चाहिए। 5. स्वराज्य मिलेगा, उससे प्राप्त होनेवाली स्वयंसत्ता सब जातियों में कैसे बांटी जाय कि स्वराज्य ब्राह्मण राज्य न हो, यह प्रश्न अहम है। 4

डॉ. अम्बेडकर अछूतों के साथ होनेवाले अन्याय को शिद्दत से उठाते थे। उन्होंने 'मूकनायक' के 14 अगस्त 1920 के अंक की संपादकीय में लिखा था, "कुत्ते-बिल्ली जो अछूतों का भी जूठा खाते हैं, वे बच्चों का मल भी खाते हैं। उसके बाद वरिष्ठों-स्पृश्यों के घरों में जाते हैं तो उन्हें छूत नहीं लगती। वे उनके बदन से लिपटते-चिपटते हैं। उनकी थाली तक में मुंह डालते हैं तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन यदि अछूत उनके घर काम से भी जाता है तो वह पहले से बाहर दीवार से सटकर खड़ा हो जाता है। घर का मालिक दूर से देखते ही कहता है-अरे-अरे दूर हो, यहां बच्चे की टट्टी डालने का खपड़ा रखा है, तू उसे छूएगा?"5कहना न होगा कि विकल कर देनेवाली यह संपादकीय टिप्पणी जाति में बंटे भारतीय समाज को आईना दिखाने में आज भी सक्षम है। संपादकीय टिप्पणियों को मिलाकर अम्बेडकर के कुल 40 लेख 'मूकनायक' में छपे जिनमें मुख्यतः जातिगत गैर बराबरी के खिलाफ आवाज बुलंद की गई है। 'मूकनायक' के दूसरे संपादक ध्रुवनाथ घोलप और अम्बेडकर के बीच विवाद होने के कारण उसका प्रकाशन अप्रैल 1923 में बंद हो गया। उसके चार साल बाद 3 अप्रैल 1927 को डॉ. अम्बेडकर ने दूसरा मराठी पाक्षिक 'बहिष्कृत भारत' निकाला। वह 1929 तक निकलता रहा।

'बहिष्‍कृत भारत' के 3 अप्रैल,1927 के अंक के अग्रलेख में डॉ. अम्बेडकर ने हिंदू धर्म में ऊंच-नीच के भेदभाव के प्रश्न को शिद्दत से उठाया था। उन्होंने लिखा था,"छह साल पहले इस लेखक ने 'मूकनायक' निकाला था। उस समय राजनीतिक सुधार का कानून अमल में नहीं आया था। उस बात को ध्यान में रखते हुए समाचार पत्रों की आवश्यकता के बारे में इस लेखक ने कहा था, "यदि इस देश की धरती में उत्पन्न होनेवाली चीजों की ओर तथा मानव जाति के क्रमिक इतिहास की तरफ दर्शक के रूप में देखें तो यह देश केवल विषमता के उद्गम-स्थल के रूप में दिखेगा। हिन्दू धर्म के लोगों में यह विषमता जितनी है, उतनी ही वह घृणा करने योग्य भी है क्योंकि, विषमता के आधार पर एक-दूसरे से होनेवाले व्यवहार का स्वरूप हिन्दू धर्म के शील को कतई शोभा नहीं देता। हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति व्यवस्था ऊँच-नीच की भावना से प्रेरित है, यह बात सभी मानते हैं। हिन्दू समाज एक मीनार है। उसकी एक-एक जाति उसकी मंजिलें हैं। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ि‍याँ नहीं हैं। इसलिए एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए यहाँ रास्ता नहीं है। जो जिस मंजिल पर पैदा होता है, वह उसी मंजिल पर मरता है। नीचे की मंजिल का आदमी कितना भी योग्य हो, उसे ऊपर की मंजिल पर जाने की अनुमति नहीं है। उसी प्रकार ऊपर की मंजिलवाला आदमी कितना ही अयोग्य हो, उसे नीचे की मंजित पर धकेलने का किसी में साहस नहीं है। अगर साफ शब्दों में कहा जाए तो जाति जाति में यह जो ऊँच-नीच की भावना है, वह अच्छ बुरे कर्मों पर आधारित नहीं है। ऊँची जाति में पैदा हुआ व्यक्ति कितना भी कुकर्मी हो, वह ऊँचा ही कहा जाता है। उसी प्रकार नीच जाति में पैदा हुआ व्यक्ति कितना भी योग्य व अच्छा कर्म करनेवाला हो लेकिन वह नीच ही रहेगा।" 6 उसी संपादकीय में डॉ. अम्बेडकर ने यह भी कहा था, "दूसरी बात यह कि आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होने के कारण हर एक जाति आत्मीयता के सम्बन्धों से वंचित है। एक जाति के आदमी के स्पर्श से अन्य जाति के लोग अपने को अपवित्र मान लेते हैं। इस छुआछूत की वजह से अछूत जाति से अन्य जाति के लोग शायद ही कभी अच्छा व्यवहार करें। रोटी-बेटी व्यवहार के अभाव में यह जो परायापन पैदा हुआ है, उसमें छुआछूत की भावना ने इतनी दूरी उत्पन्न कर दी है कि तमाम अछूत जातियाँ हिन्दू समाज की होने के बावजूद हिन्दू समाज से बाहर लगती हैं, यह कहना गलत नहीं होगा।" 7

अछूतों के साथ होनेवाले अन्याय के एक नहीं, अनेक रूप रहे हैं। जैसे सवर्णों द्वारा अछूतों को तालाब-कुएं आदि से पानी न भरने देना। उन्हें मंदिर में प्रवेश न करने देना। डॉ. अम्बेडकर ने तालाब से अछूतों को पानीनहीं भरने देने के संग्राम को धर्म युद्ध की संज्ञा दी थी। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 22 अप्रैल, 1927 के अंक में 'महाड का धर्म-संग्राम और ऊँची जाति के हिन्दुओं की जिम्मेदारी'शीर्षक अग्रलेख में लिखा था, "कुलाबा जिला बहिष्कृत परिषद् का अधिवेशन संपन्न होने के उपरांत महाड के ब्राह्मणग्रस्त हिन्दू ग्रामकंटकों ने जो ज्यादती की थी, उसका वृतांत हमने 'बहिष्‍कृत भारत' के पिछले अंक में प्रकाशित किया था। महाड नगरपालिका ने चवदार तालाब को सार्वजनिक घोषित किया था, उस तालाब से पानी भरने की वजह से मारपीट हुई यह बात केवल पानी की सुविधा की दृष्टि से मामूली है, ऐसा शायद कहा जा जाए। 'भालाकार' की सलाह के अनुसार उसे नल लगाकर या दूसरे किसी उपाय से हल किया जा सकता है। किन्तु दूसरे दृष्टिकोण से यह समस्या मामूली नहीं है बल्कि बहुत गंभीर है क्योंकि इसका सम्बन्ध एक बहुत बड़े प्रश्न से है।" 8 उसी संपादकीय में अम्बेडकर ने लिखा था, "अछूत लोग पानी भरने के लिए चवदार तालाब पर गए, इसलिए मारपीट हुई, इतना भर कह देने से जो घटना घटित हुई उसका सही स्वरूप लोगों के सामने नहीं आता। जो घटना घटित हुई उसका सही स्वरूप एकदम भिन्न है। उसे दंगा कहने के बजाय धर्मयुद्ध कहना ज्यादा उचित होगा, यही हमारा मानना है। क्योंकि हिन्दू समाज के अंश, हिन्दू धर्म के अनुयायी हम लोग इस नाते अन्य हिन्दू जातियों की तरह समान अधिकारों के हक़दार हैं, हमारे हक़ समान हैं या नहीं, यह बात साबित करने का प्रयास इस पानी विवाद के मूल में था, इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इस सवाल का महाड़ की ऊंची जाति के हिन्दुओं ने झगड़ा-फसाद करके नकारात्मक जवाब दिया है, यह बात जाहिर हो चुकी है। ऊँची जाति के हिन्दुओं की इस धृष्टता का हम लोगों को बड़ा दुःख हुआ है।" 9

डॉ. अम्बेडकर ने तालाब से पानी नहीं भरने के विवाद पर अंग्रेज सरकार की जिम्मेदारी का प्रश्न भी उठाया था। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 6 मई, 1927 के अंक के 'महाड का धर्म-संग्राम और अंग्रेज सरकार की जिम्मेदारी' शीर्षक अग्रलेख में लिखा था,"महाड के लोग एक सार्वजनिक तालाब पर पानी भरने के लिए गए थे। उनका पानी भरना वहाँ के छूत हिन्दुओं को बर्दाश्त नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने अछूतों को रोकने के लिए जो झगड़ा-फसाद किया, उसमें उनकी जिम्मेदारी के सम्बन्ध में हमने जो महसूस किया, उसे हमने पिछले अंक में साफ़ शब्दों में लिखा है। इस विवाद के संबंध में अछूतों का कहना है कि हम लोगों को भी सार्वजनिक कुँओं का उपयोग करने, मन्दिर में जाने की अन्य हिन्दुओं की तरह स्वाधीनता होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में उनके और हमारे अधिकार एक से हैं। कुएँ से पानी लिया या मन्दिर में यदि हम लोगों ने प्रवेश किया तो यह हमारा अधिकार है और उस अधिकार पर अमल करते समय हम लोगों को रोकने का किसी को हक नहीं है। इस पर उनके प्रतिवादी छूत लोग जवाब देते हैं कि-तुम लोग हिन्दू होते हुए भी अपवित्र हो। तुम्हारे छूने से कुँए, तालाब, मन्दिर अपवित्र हो जाते हैं। अछूतपन हिन्दू धर्म का सनातन काल से चला आ रहा रिवाज है और उसे धर्मशास्त्रों की मान्यता मिली हुई है। इस सनातन रिवाज के कारण अछूतों को तालाब, कुँओं के उपयोग या मन्दिर के अन्दर प्रवेश का अधिकार नहीं है। सार्वजनिक तालाब, कुँओं आदि का उपयोग तुम लोगों के उन्हें स्पर्श किए बिना ही करने का अधिकार हमें हासिल है। फिर भी यदि तुम लोग उनमें जाओगे तो उनमें तुम्हारा प्रवेश अवैध माना जाएगा और उससे हमारे अधिकार घट जाएंगे। इसलिए तुम लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए। यदि तुम लोगों ने ऐसा किया तो हमारे अधिकारों में अतिक्रमण होगा और इसलिए हम लोग तुम्हारा विरोध करेंगे। ऐसी परिस्थिति में सरकार को अपनी जिम्मेदारी दृढ़ता से पूरी करनी होगी।" 10 उस धर्मयुद्ध पर अछूतों की जिम्मेदारी का प्रश्न भी डॉ. अम्बेडकर ने उठाया था और इस तरह अपनी पत्रकारिता को एकांगी होने के दोष से बचाया था। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 20 मई, 1927 के अंक के 'महाड का धर्म-संग्राम और अछूत वर्ग की जिम्मेदारी' शीर्षक अग्रलेख में लिखा था, "पिछले दो अंकों में हमने पानी-विवाद के बारे में सवर्ण हिन्दुओं और सरकार की जिम्मेदारी पर विचार किया। आज हम मार्गदर्शन करेंगे कि अछूत भाइयों को इस सम्बन्ध में क्या करना चाहिए। महाड का चवदार तालाब सार्वजनिक है। उस तालाब पर सभी जाति के लोग बिना किसी बाधा के पानी भरते हैं। कोई किसी को रोकता नहीं। लेकिन उसी तालाब पर महार, मातंग, चमार, ढोर आदि जाति के लोगों ने पानी भरने की कोशिश की तो यह बात सवर्ण हिन्दू समाज को बर्दाश्त नहीं हुई। यह बात महाड के विवाद से स्पष्ट हो चुकी है। सवाल है कि ऐसा क्यों होता है? इस बात का यदि हमारे समाज के भाइयों ने भलीभाँति विचार किया तो उनकी समझ में आएगा कि उन्हें हिन्दू धर्म में अपवित्र माना जाता है। उनके छू जाने से ही हिन्दू धर्म को माननेवाला आदमी अपवित्र हो जाता है और उसकी अपवित्रता को दूर करने के लिए उन्हें कपड़ों समेत स्नान करना अनिवार्य हो जाता है। कुछ जगहों पर तो उनकी सिर्फ छाँव भी छू गई तब भी दोष समझा जाता है और उसके निराकरण के लिए स्नान करना पड़ता है। इसका कारण केवल शुद्धता-अशुद्धता की भावना ही होती तो उसके विरोध में किसी को बहुत कहने की आवश्यकता नहीं थी। कोई औरत रजस्वला हो तो वह जब तक उस स्थिति में है तब तक उसे किसी को छूना नहीं है, यह कहना स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन इन जातियों के लोगों का छूना व्यावहारिक क्यों नहीं है, इस बात की यथोचित मीमांसा कोई नहीं कर सकता।" 11

जहां भी अछूतपन था, उसका डॉ. अम्बेडकर ने प्रतिरोध किया था। डॉ. अम्बेडकर को यह भलीभांति ज्ञात था कि अछूतपन केवल हिंदू धर्म में नहीं है, दूसरे धर्मों में भी है। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 3 जून, 1927 के अंक के अछूतपन उन्मूलन का मज़ाक शीर्षक संपादकीय में लिखा था,"अछूतपन की अवधारणा केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं है। यहूदी धर्म में कहा गया है कि मुर्दे को छूने से आदमी अपवित्र होता है। उस धर्म में शुद्ध व्यक्ति अन्य अशुद्ध लोगों को अपवित्र (अछूत) समझता था। सुवेरा और रजस्वला की अपवित्रता यहूदी धर्म में भी बताई गई है। इतना ही नहीं, अगर किसी कारण किसी यहूदी के शरीर से खून बह रहा हो तो उसे यहूदी धर्म में अछूत माना जाता है। पारसी धर्म में भी अछूतपन की अवधारणा दिखाई देती है। पारसी धर्मग्रन्थों की दृष्टि से देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति निम्न तीन कारणों से अछूत हो सकता है : (1) मृतक का स्पर्श करने से, (2 ) स्त्री के रजस्वला होने पर, (3) उक्त अछूतों को छूने से। हिन्दू धर्म की तरह इन दो धर्मों में अछूतपन की अवधारणा रहने पर भी हिन्दू धर्म में ही अछूत वर्ग क्यों पैदा हुआ, यहूदी तथा पारसी धर्म में क्यों नहीं? हिन्दू धर्म में अछूतपन त्रिकालिक क्यों बना और दूसरे धमों में क्षणिक क्यों? उसी प्रकार दूसरे धर्मों में इस अछूतपन से मुक्त होने के लिए किस प्रकार का रास्ता अख्तियार किया गया और हिन्दू धर्म में कोई वैसा रास्ता क्यों नहीं अख्तियार किया गया? ये सवाल बहस के लिए हैं और इन सभी सवालों पर एक बार चर्चा करने की जरूरत है।" 12

डॉ. अम्बेडकर ने उद्देश्यपूर्ण ढंग से अछूतपन की बहस को आगे बढ़ाया। उनका मानना था कि अन्याय के सबसे अधिक शिकार अछूत ही हैं। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 18 जनवरी 1929 के अंक के नेहरू कमेटी की योजना और भारत का भविष्‍य शीर्षक संपादकीय टिप्पणी में लिखा था,"सबसे अल्पसंख्यक लोग यदि कोई हैं तो वे अछूत ही हैं। अछूतों की तरह गरीबी और अन्याय से त्रस्त लोग दूसरे नहीं हैं। सबसे अधिक अज्ञान के कारण अपना संरक्षण करने में असमर्थ लोग यदि कोई हैं तो वे हैं अछूत। अछूतपन के कलंक के कारण राजनीतिक अधिकारों से महरूम वर्ग अछूतों के सिवाय दूसरा कोई नहीं है। जिनके उत्थान के लिए हाथ बँटाने की समाज ने कभी चिंता नहीं की और जिसके पतन को धर्म का बहाना आगे करके हिन्दू समाज उनके पतन का कारण बनता है, उस अछूत समाज को मुस्लिम समाज से भी ज्यादा राजनीतिक संरक्षण की जरूरत है। जैसे डूबनेवाले को सहारा देना चाहिए। उस सिद्धान्त के अनुसार मुस्लिमों से पहले अछूतों को सुविधाएँ देने की जरूरत थी। लेकिन वैसा कुछ करने के बजाय 'पार करनेवाले को हाथ और डूबनेवाले को लात' की नीति अख्तियार की गई है। अछूतों को कुछ सहूलियतें नहीं चाहिए, उनका सवाल सामाजिक है और उसका हल शिक्षा से हो जाएगा इस तरह का अभिमत देकर नेहरू कमेटी ने अपने आपको अलग कर लिया। अछूतों का सवाल यदि सामाजिक है तो मुस्लिमों का सवाल सामाजिक क्यों नहीं? ऊँची जाति की टेढ़ी नजरों का दोष जैसे अछूतों को भोगना पड़ता है, उसी प्रकार मुस्लिमों को भी भोगना पड़ता है। इसके अलावा मुस्लिमों की दूसरी कौन-सी समस्या है, जिससे मुस्लिमों का संरक्षण करना आवश्यक है और अछूतों के संरक्षण की जरूरत नहीं? नजरदोष की पीड़ा दोनों को समान रूप से भोगनी पड़ती है। एक की पीड़ा शिक्षा से दूर हो सकती है ऐसा यदि नेहरू कमेटी का मानना है तो फिर उसी आधार पर मुस्लिमों के बारे में नेहरू कमेटी शान्त क्यों नहीं रही? अपने इस मत के लिए नेहरू कमेटी ने सिलोन कमीशन की रिपोर्ट को आधार बनाया है लेकिन सिलोन कमीशन ने अछूतों को राजनीतिक सुविधाएँ नहीं दी हैं। इसका कारण उस तरह की सुविधाएं उन्होंने किसी को नहीं दी हैं। उन्होंने जैसे अछूतों को सुविधाएं नहीं दीं वैसे ही मुस्लिमों को भी नहीं दीं। हिन्‍दू समाज का गुस्‍सा तो हम लोगों पर ही है। वहाँ फिर मुस्लिम समाज के गुस्‍से का बोझ और बढ़ जाएगा, यह बात ठीक नहीं। लेकिन जहाँ हमारे देश का नुकसान है वहाँ हमारा भी अकल्‍याण है। यह भावना होने के कारण इस खतरे को हमने अपने सिर लिया है। इस बात से जनमत को मार्गदर्शन मिलेगा, इस तरह की हम आशा करते हैं।" 13

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि ऊंची जातियों का वर्चस्व सांघातिक है, इसीलिए वे चातुर्वर्ण्य का विरोध करते थे। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 1 फरवरी 1929 के अंक के समानता के लिए असमानता शीर्षक संपादकीय में लिखा था,एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर वर्चस्व रहना ही चातुर्वर्ण्य का रहस्य है। इस चातुर्वर्ण्य के विरोध में आज तक कई बार विद्रोह हुए हैं उसमें महाराष्ट्र भागवतधर्मीय साधु-सन्तों का विद्रोह प्रमुख है। लेकिन इस विद्रोह में लड़ाई का स्वर बिल्कुल भिन्न था। इसमें मुख्य मुद्दा यह था कि मानवी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं या भक्त? किंतु साधु-सन्तों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं तलाशा कि ब्राह्मण मानव श्रेष्ठ है या शूद्र मानव श्रेष्ठ है। इस विद्रोह में साधु-सन्तों को कामयाही मिली और भक्तों का श्रेष्ठत्व ब्राह्मणों को मंजूर करना पड़ा। फिर भी इस विद्रोह का चातुर्वर्ण्य विनाश की दृष्टि से कोई उपयोग नहीं हुआ। 14

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि हिंदू समाज को अछूतपन के प्रश्न पर अपना सुधार करना चाहिए अन्यथा अछूत उस धर्म को छोड़ने की सोच सकते हैं। अम्बेडकर ने 'बहिष्‍कृत भारत' के 15 मार्च 1929 के अंक में हिन्‍दू धर्म को चेतावनी शीर्षक टिप्पणी में कहा था, "हिन्दू समाज को चेतावनी का मतलब हिन्दू धर्म को ही चेतावनी है। फिलहाल अछूत वर्ग के लोगों ने हिन्दू समाज में रहने या हिन्दू समाज के बाहर जाकर अपना उत्थान करने का निर्णय हिन्दू धर्म का सुधार करनेवालों पर ही छोड़ दिया है। वस्तुतः हिन्दू धर्म में सुधार अछूत समाज के हाथ में नहीं है। स्वयं को ऊँचे वर्ण के कहलानेवाले लोगों ने चाहा तो वे सुधार ला सकते हैं। किंतु उसके लिए उन्हें खुद की नकली श्रेष्ठता छोड़नी होगी। तभी वे सच्चा धार्मिक और सामाजिक सुधार ला सकते हैं। खुद को ऊँचे वर्ण के लोग अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं; इसलिए हिन्दू समाज की जातियों में टकराव हो रहा है और अछूतपन की समस्या हल नहीं हो रही है।" 15

हिंदू समाज में जो व्यक्ति जातिभेद और अछूतपन का प्रतिरोध करते थे, उनके प्रति अम्बेडकर आदर व्यक्त करते थे। जब हिंदू महासभा में रामानंद चटर्जी ने अछूतपन का प्रतिरोध किया तो उस पर बाबा साहेब ने 'बहिष्‍कृत भारत' के 12 अप्रैल 1929 के अंक में हिन्दू महासभा और अछूतपन शीर्षक से टिप्पणी लिखी। उसमें उन्होंने कहा था, "हिंदूमहासभा के अध्यक्ष पद के लिए कलकत्ता की प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रिका माडर्न रिव्यू के संस्थापक और सम्पादक श्री चटर्जी का नाम प्रस्तावित किया गया था, श्री चटर्जी प्रख्यात लेखक हैं और स्वतन्त्र विचार तथा स्पष्ट वक्तृता के लिए प्रसिद्ध हैं। वे ब्रह्म समाज के अनुयायी हैं। वे जबर्दस्त सुधारवादी हैं। ऐसे व्यक्ति को हिन्दू महासभा के अधिवेशन में अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित करना आश्चर्यजनक है। उनका भाषण आवश्यकता से अधिक मुंहतोड़ था। श्री चटर्जी ने कहा कि हिन्दू समाज को जातिभेद तथा अछूतपन का जो महारोग लगा हुआ है, उसका पूरी तरह से उन्मूलन होना चाहिए। उनके भाषण का कितना असर पड़ा, इसके बारे में हमें सन्देह है। क्योंकि हिन्दू समाज कल्पना के बाहर का रहस्य है। भाषणों को सुनकर वह तालियाँ बजाता है, यही नहीं, उस तरह के विचार प्रकट करनेवाले व्यक्ति को ऊंचे स्थान पर बैठाकर सम्मानित भी करता है किंतु पहले के रिवाजों को यथावत जारी रखता है। इसका प्रमाण गौतम बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी तक के काल का इतिहास देगा। गौतम बुद्ध ने जातिभेद का निषेध किया, धर्म तथा कर्मकांड के पाखंड को संसार के सामने खोलकर रख दिया तब भी हिन्दू समाज ने उसे भगवान का एक अवतार बनाकर उसकी शिक्षा को पूरी तरह से नकार दिया। आज हिन्दू समाज महात्मा गांधी के साथ यही व्यवहार कर रहा है।" 16 उसी टिप्पणी में बाबा साहेब ने यह भी लिखा था, "बड़े-बडे़ धर्म-सुधारकों और समाज-सुधारकों को पचा लेने की जो चालाकी हिन्दू समाज को प्राचीनकाल से प्राप्त हुई है, उसे ध्यान में रखें तो रामानन्द चटर्जी जैसे सच्‍चे ब्राह्मसमाजी को हिन्दू महासभा का अध्यक्ष पद दिए जाने पर अचरज करने की कोई जरूरत नहीं है। हिन्दू समाज के पेट की आग में बुद्ध जलकर खाक हो गया, महावीर खाक हो गया, बसव खाक हो गया, चैतन्य खाक हो गया, रामानन्द खाक हो गया, चक्रधर खाक हो गया और भागवत सम्प्रदाय भी खाक हुआ। हिन्दू समाज की इस आग में नानक और कबीर की वही दशा हुई, राममोहन राय, दयानन्द, रामकृष्ण परमहंस, विष्णु बाबा ब्रह्मचारी, ज्योतिबा फूले, रानाडे, भण्डारकर, विवेकानन्द, रामतीर्थ, श्रद्धानन्द, लाजपत राय आदि को भी हिन्दू समाज ने उसी रास्ते से लगा दिया या लगाने की चेष्टा की जा रही है। महात्मा गांधी, रामानन्द चटर्जी आदि जैसे लोगों को भी वे पचा लेंगे, इस तरह की धमक हिन्दू समाज में है। हिन्दू समाज को यह एक बहुत अच्छी कला हासिल है कि व्यक्ति की महानता को बढ़ाना और उसकी शिक्षा कितनी भी अच्छी क्यों न हो, उसे नकारना और अपने रीति-रिवाजों को पूर्ववत जारी रखना, यह कला हिन्दू समाज को अच्छी तरह हासिल है।" 17

विदर्भ के जलगाँव के लगभग पाँच हजार महार लोगों ने एक खुला पत्र छपवाकर ऐलान किया था कि हिन्दू समाज ने अछूतपन की मानसिकता को निश्चित अवधि के पहले खत्म नहीं किया तो वे दूसरा धर्म स्वीकार कर लेंगे। उस पत्र को 'बहिष्‍कृत भारत' में प्रकाशित करने के साथ ही अम्बेडकर नेइस विषय पर एक अग्रलेख भी लिखा था। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 21 जून 1929 के अंक के नाक दबाए बगैर मुँह नहीं खुलता शीर्षक टिप्पणी में लिखा था, "जलगाँव के महार लोगों का यह घोषणापत्र केवल एक खोखली धमकी है, इस तरह का दुष्प्रचार ब्राह्मणवादी अखबारों तथा अब्राह्मण आन्दोलन में शामिल जयराम नाना वैद्य जैसे लोगों ने किया था। उन्होंने इस तरह की प्रतिक्रिया दी जिससे यह मजाक बन जाए। लेकिन जलगाँव के महार समाज के नेता मज़ाक नहीं थे। यह उनका अटल निर्णय था। आज सैकड़ों-हजारों साल से चली आ रही गुलामी को खत्म करने के लिए बड़े दुख के साथ सदा-सर्वदा के लिए हिन्दू धर्म को छोड़ने की पूरी तैयारी करके ही उन्होंने यह चुनौती दी। उनकी यह चुनौती खोखली धमकी नहीं थी, मज़ाक नहीं थी या बच्चों का खेल नहीं थी।" 18

अम्बेडकर को इस बात का संतोष था कि अछूतों का स्वतंत्र आंदोलन खड़ा हो चुका है। उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 12 जुलाई 1929 के अंक के सामाजिक समानता के विरोधी शीर्षक टिप्पणी में लिखा था, "अछूत वर्ग का स्वतन्त्र आन्दोलन और समाज समता संघ का आन्दोलन न होता तो अछूतपन उन्मूलन का सवाल अपने एजेंडे से हमने निकाल बाहर किया होता। अछूत वर्ग की स्थिति में विशेष सुधार किए बगैर और उनमें स्वाभिमान की चेतना पैदा होने के अवसर दिए बगैर मुस्लिम और ईसाई समाज के साथ झगड़ने में सवर्णों ने अछूतों का उपयोग किया है, ऐसा धूर्त विचार हिन्दू संगठनवादियों और पाखंडी शुद्धि प्रचारकों का है। लेकिन अछूत समाज का स्वतन्त्र आन्दोलन और समाज समता प्रस्थापित करने का आन्दोलन अब अपनी गहरी पैठ जमा चुका है। वे आन्दोलन गहरे सिद्धान्तों पर आधारित हैं। इसीलिए वे आंदोलन बहुजन समाज में फैल रहे हैं। अतः आलोचना और नफरत से उनके दब जाने की कोई सम्भावना नहीं है।" 19

अम्बेडकर को अछूतपन के विरुद्ध संघर्ष में कम्युनिस्टों को रुख को लेकर संशय था जिसे उन्होंने 'बहिष्‍कृत भारत' के 4 अक्टूबर 1929 के अंक के बुनियादी बातों को प्रोत्‍साहन न मिलना शीर्षक टिप्पणी में अभिव्यक्त किया था। उस टिप्पणी में उन्होंने कहा था,"जातिभेद और छुआछूत की भावना मजदूरों में कम नहीं है। मिलों में पानी के नलों पर अछूतों को न आने देने की लाल झंडेवाले मजदूरों की पूरी कोशिश रहती है और उसी कारण उनमें बार-बार झगड़े होते हैं। जातिभेद और अछूतपन की भावना कम्‍युनिज्‍म के सिद्धांतों के एकदम विरोध में है। लेनिन यदि हिन्‍दुस्‍तान में पैदा हुए होते तो सबसे पहले उन्‍होंने जातिभेद और अछूतपन को पूरी तरह से समाप्त कर दिया होता। ऐसा किए बिना उन्‍होंने क्रांति की कल्‍पना तक नहीं की होती। कुछ देर लिए हम मान भी लें कि इस देश के कम्युनिस्टों को यहाँ क्रान्ति करने में सफलता मिलती है, तो उस क्रान्ति का बहुजन समाज को क्‍या लाभ मिलेगा? कम्युनिस्टों के उद्देश्य के अनुसार वैसी समाज व्यवस्था अमल में आ सकेगी? शायद समाज में ज्यादा हो हल्ला मचे। भीतर झगड़े बढ़ेंगे और जो वर्ग फिलहाल कमजोर हैं, वे जाति-अहंकार की वजह से प्रबल वर्ग की जुल्‍म-ज्‍यादतियों के शिकार बनेंगे।" 20

अम्बेडकर ने समाज में समता लाने के उद्देश्य से समाज समता संघ के मुखपत्र के रूप में 29 जून 1928 को पाक्षिक अखबार 'समता' निकाला। उसके प्रवेशांक के मुख पृष्ठ पर 'समतेचा उदय' शीर्षक उत्तमराव कदम की कविता छपी थी। दूसरे व तीसरे पृष्ठ पर पत्रिका के उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया था। उसमें ब्राह्मण व ब्राह्मणेतर समाज में सौहार्द्र कायम करना प्रमुख उद्देश्य बताया गया था। चौथे पृष्ठ पर 'वेदाचा अर्थ आणि समतेचा मार्ग' शीर्षक संपादकीय टिप्पणी छपी थी। पांचवें से आठवें पृष्ठ पर समाचार व चित्र प्रकाशित किए गए थे। 'समता' के 13 जुलाई 1928 के अंक के प्रथम पृष्ठ पर प्रचलित प्रश्न शीर्षक टिप्पणी में कहा गया था कि पंजाब व महाराष्ट्र जातिपाति तोड़क मंडल का यह कहना सही है कि जातिभेद तोड़े बगैर हिंदू समाज की प्रगति संभव नहीं है।21इसी अंक की संपादकीय में पंजाब तो जातिपाति तोड़क और महाराष्ट्र जातिपाति तारक है। 'समता' के 27 जुलाई के अंक में समता एवं वर्ग कलह और ब्राह्मण, ब्राह्मणेतर व समता शीर्षक लेख दिए गए हैं। 'समता' के 10 अगस्त 1928 के अंक में प्रथम पृष्ठ में कहा गया है कि जातिभेद को खत्म कर ही तिलक के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।22उसी अंक में समता व ब्राह्मणेतर आंदोलन और तिलक को अब मूर्ख नहीं मानना चाहिए शीर्षक एक लेख भी दिए गए हैं। 'समता' के 24 अगस्त 1928 के अंक की संपादकीय मे हमारा आदमी शीर्षक टिप्पणी में सावरकार के उस पक्ष को उभारा गया है जिसमें उन्होंने कहा है कि वे जातिभेद के समर्थक नहीं हैं बल्कि वे रोटी-बेटी के संबंध का समर्थन करते हैं।23'समता' के 21 सितंबर 1928 के अंक में सार्वजनिक गणेशोत्सव व सामाजिक अस्पृश्यता शीर्षक खबर में अपील की गई है कि है कि उत्सव में सभी की एक जैसी सहभागिता होनी चाहिए। सभी एक तरह से पूजा करें। उसी अंक में हिंदू सहभोज पर संपादकीय टिप्पणी दी गई है। 'समता' के 5 अक्टूबर 1928 के अंक के प्रथम पृष्ठ की मुख्य खबर का शीर्षक है अस्पृश्यतेचा उगम जातिभेदातूनच यानी जातिभेद से ही अस्पृश्यता का उगम। यह खबर बाबा साहेब के भाषण पर केंद्रित है। उसी अंक में हिंदू समाज की जानलेवा बीमारी शीर्षक लेख में जानकारी दी गई है कि 'नवयुग' के संपादक सत्यदेव विद्यालंकार ने भी कहा है कि जातिभेद हिंदू समाज की जानलेवा बीमारी है और उनकी पत्रिका उसके खिलाफ निरंतर संघर्ष करेगी। 24 'समता' के 19 अक्टूबर 1928 के अंक में ब्राह्मणेतर लोगों के लिए महत्वपूर्ण संकेत शीर्षक खबर दी गई है जिसमें डा. सोलंकी नामक अछूत व्यक्ति के हाथों भगवा ध्वज फहरवाकर नवरात्रि उत्सव प्रारंभ किए जाने की प्रशंसा की गई है और कहा गया है कि उसी तरह जातिभेद खत्म होगा। 25 उसी अंक में आत्मघात की बजाय आत्मशुद्धि करने की सलाह संपादकीय टिप्पणी में दी गई है। 'समता' के 30 नवंबर 1928 के अंक में समता के मार्ग सुझाए गए हैं। उसी अंक में लाला लाजपत राय की याद में श्रद्धांजलि संपादकीय लेख लिखा गया है। 'समता' के 15 मार्च 1929 के अंक में प्रथम पृष्ठ पर समता के मार्ग के लिए स्नेह भोज की विस्तृत खबर दी गई है।

बाबा साहेब ने 24 नवंबर 1930 को पाक्षिक समाचार पत्र 'जनता' निकला। प्रवेशांक में 'समता' व 'बहिष्कृत भारत' शीर्षक टिप्पणी में अम्बेडकर ने कहा था कि आर्थिक कारणों से 'समता' व 'बहिष्कृत भारत' बंद हो गए किंतु उनके ग्राहकों को समाज समता संघ के नेतृत्व में निकाले जा रहे 'जनता' समाचार पत्र की प्रति निःशुल्क दी जाएगी। प्रवेशांक में 'प्रासंगिक विचार' शीर्षक संपादकीय टिप्पणी में कहा गया कि बहुजन जनता की भावनाओं को व्यक्त करने का काम यह अखबार करेगा। परिस्थिति अनुकूल होते ही इसे साप्ताहिक किया जाएगा। उस घोषणा के अनुरूप 'जनता' बाद में साप्ताहिक के रूप में परिवर्तित हो गया। 'जनता' के 15 दिसंबर 1930 के अंक में 'विषमतेचे विष' शीर्षक टिप्पणी में कहा गया कि धार्मिक कारणों से समाज में विषमता का विष जन्मा है और जो अलग अलग मौकों पर व्यक्त होता है। विषमता के विष फैलानेवालों से समता की उम्मीद नहीं की जा सकती। 26 'जनता' के 12 जनवरी 1931 के अंक में 'अस्पृश्यांचा सत्याग्रह' शीर्षक टिप्पणी में कहा गया है कि अखिल भारतीय वर्णाश्रम स्वराज संघ परिसर जलगांव में 29-30-31 दिसंबर 1930 को जो अधिवेशन हुआ था, उसमें अछूत लोगों को शामिल नहीं होने दिया गया। उसमें शामिल होने के लिए अछूतों ने सत्याग्रह किया तो तीन महिलाओं और 26 पुरुषों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। 27

'जनता' के 25 जून 1932 के अंक में डॉ. अम्बेडकर ने अपने ऊपर लगनेवाले तमाम आरोपों का दो टूक जवाब दिया था। उन्होंने लिखा था,"आज हिन्दुस्तान में देशद्रोही, देशविघातक, हिन्दू धर्म विघातक और हिन्दू हिन्दू में दरार पैदा करनेवाला, अगर किसी को कहा जाता है तो वह मुझे कहा जाता है। किन्तु यह तूफानी वातावरण शान्त होने के बाद मेरे आलोचक गोलमेज परिषद के कार्य की यदि गहराई में जाकर समीक्षा करेंगे तो उन्हें एक बात कबूल करनी पड़ेगी कि डॉ. अम्बेडकर ने राष्ट्र के लिए कुछ न कुछ जरूर किया है। उन्होंने यदि आज के इस दूषित वातावरण में परिवर्तन की बात कबूल नहीं की तो मैं उन्हें फूटी कौड़ी का भी महत्त्व नहीं दूंगा। मेरे कार्य पर मेरे दलित समाज का भरोसा है, इस बात को में बड़ी बात मानता हूँ। जिस समाज में मेरा जन्म हुआ है और जिन लोगों के बीच मुझे मरना है, उन्हीं के लिए मैं कार्य करता रहूँगा। मुझे अपने आलोचकों की परवाह नहीं है।" 28 उसी टिप्पणी में बाबा साहेब ने यह भी कहा था, "मुझ पर यह आरोप लगाया जाता है कि मैं देश का कार्य नहीं कर रहा हूँ। आज सौ साल से सुधारक, नरम-गरम लोगों का राष्ट्र के नाम पर अपनी जाति के लोगों के पालन-पोषण का काम चल रहा है । उन लोगों ने हमारे समाज के लिए कुछ नहीं किया है। फिर उन्हें मुझसे राष्ट्र कार्य की आशा क्यों करनी चाहिए? मुझे अपने समाज की सेवा करनी चाहिए। महाड, नासिक और अन्य स्थानों के सत्याग्रह से मेरा यह यकीन हो गया है कि सवर्ण हिन्दू लोगों के मन-मस्तिष्क में अछूतों को इंसान समझने की, दूसरों को बराबरी के अधिकार देने की इच्छा नहीं है। हमने पत्थरों की दीवार पर सिर पटककर माथा फोड़ दिया तो आखिर में खून हमारा ही बहेगा। हिन्दू समाज के मन-मस्तिष्क की सड़ाँध दूर होनेवाली नहीं है। अतः हम सरकारी तहसीलदारों के तम्बू ताननेवाले और साफ-सफाई करनेवाले नहीं बने रहेंगे। अन्य लोगों की भांति हम भी राजनीतिक सत्ता लेंगे और अपनी सामाजिक स्वतन्त्रता स्थापित करेंगे। अब इसके बाद हम किसी के गुलाम नहीं रहेंगे, यही हमारा अन्तिम संकल्प है।" 29

डॉ. अम्बेडकर ने 'जनता' के 24 सितंबर 1932 के अंक में लिखा था, "महात्मा गांधी ने 15 सितम्बर 1932 को मुम्बई सरकार को एक पत्र लिखकर अपने आमरण अनशन की जानकारी दी थी। उस पत्र के जवाब में मैंने 19 सितम्बर 1932 को एक निवेदन प्रकाशित किया था। उसमें मैंने कहा था कि ब्रिटिश सरकार ने स्वेच्छा से या जनमत के दबाव में आकर अछूत समाज को स्वतन्त्र मतदाता संघ का जो अधिकार दिया है, उसका विरोध करते हुए गांधीजी ने प्रतिज्ञा की है कि ब्रिटिश सरकार घोषित रूप में इसे वापस नहीं लेती है तो मैं आमरण अनशन करके अपनी जान दे दूंगा। उनकी इस प्रतिज्ञा को सुनकर मैं चकित हूं। महात्मा गांधी के आत्महत्या के संकल्प ने मुझे मुश्किल स्थिति में डाल दिया है।" 30 उसी टिप्पणी में अम्बेडकर ने लिखा था, "अछूत समाज को कुछ समय के लिए स्वतंत्र मतदार संघ देने से बड़ा अनर्थ हो जाएगा, यह जो समझ गांधीजी की बनी है, वह कपोल-कल्पित है। जब गांधीजी को नहीं लगता कि मुस्लिमों और सिखों को स्वतन्त्र मतदाता संघ देने से राष्ट्र के टुकड़े होते हैं और यदि वे उनके लिए कबूल कर लिए जाते हैं, तो अछूतों को स्वतन्त्र मतदाता संघ मिल जाने से हिन्दू समाज के टुकड़े हो जाएंगे, ऐसा समझकर अनशन कर प्राण देना उन्हें न्यायपूर्ण कैसे लगा? मुझे उम्मीद है कि गांधीजी ने आत्महत्या का जो रास्ता अपनाया है, उसे वे छोड़ देंगे। स्वतन्त्र मतदाता संघ की माँग करने में हमारा यह उद्देश्य बिल्कुल नहीं है कि हिन्दू समाज की क्षति हो। बल्कि हमने इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर यह माँग की है कि हमारा भविष्य हमारे हाथों में होना चाहिए, सवर्ण हिन्दुओं की खुशी पर या उनकी मर्जी पर हमारा भविष्य पहले की तरह पूरी तरह से निर्भर नहीं होना चाहिए। गांधीजी अंग्रेज शासन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि गलती या पाप करने का भी हमें अधिकार है। इसलिए हम गांधीजी को यह बताना चाहते हैं कि हमें भी वही अधिकार है और होना चाहिए जो अधिकार उन्‍हें है। वे हमारे उस अधिकार को हड़पने का प्रयास कतई नहीं करेंगे, ऐसी हम आशा करते हैं।" 31 गांधीजी की जान और अछूत लोगों के अधिकार के बारे में अम्बेडकर ने उसी टिप्पणी में लिखा था, "मैं एक बात की ओर आप लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। इस सम्बन्ध में किसी के साथ बात करने का कोई प्रयोजन नहीं है। यह कहने का मुझे अधिकार है बावजूद इसके सिर्फ गांधीजी के इस प्रश्न पर मैं किसी नई योजना पर विचार करने के लिए तैयार हूँ और मुझे आशा है कि गांधीजी की जान और मेरे लोगों के अधिकार इन दोनों में से सिर्फ किसी एक बात का चुनाव करने की भयानक और संवेदनशील स्थिति में नहीं आने देंगे। क्योंकि इस तरह की स्थिति आई तो मैं किस बात का चुनाव करूँगा, यह कहने की जरूरत नहीं है। कुछ भी क्यों न हो, किन्तु मैं अपने लोगों का भविष्य सवर्ण हिन्दू लोगों को सुपूर्द करने के लिए तैयार नहीं हूँ।" 32

डॉ. अम्बेडकर ने हिंदू धर्म के दकियानूसी चौखट से बाहर निकलने के लिए अंततः धर्मांतरण का फैसला किया। उन्होंने 'जनता' के 16 मई 1936 के अंक में 'जिस धर्म में समानता, प्रेम और अपनापन नहीं वह धर्म नहीं' शीर्षक टिप्पणी में लिखा था,"दो हजार साल पहले हमारे पुरखे अज्ञानी थे। उनको किसी भी प्रकार का ज्ञान हासिल करने की और हथियार उठाने की अनुमति नहीं थी। इसलिए उनमें कोई भी नया कार्य करने का साहस नहीं था। अज्ञान ने उनके मन को नष्‍ट करके कमजोर बना दिया था। उन्‍होंने हिन्‍दू धर्म को चार वर्णों की चौखट में कसकर रख दिया है। इस वर्ण व्‍यवस्‍था के कारण हमारी योग्‍यता किसी भी ब्राह्मण से श्रेष्‍ठ होने पर भी गुलामी के काम हमारे हाथों में दे दिए गए हैं। इस गुलामी के कारण ही हमारे पूर्वज अपना स्‍वाभिमान पूर्णतः भूल गए थे। किन्‍तु आज स्थिति बदल गई है। उस स्थिति के अनुसार हम हिन्‍दू धर्म की दकियानूसी चौखट में नहीं रह सकते। इसलिए धर्मान्‍तरण का ऐलान करने के लिए मैं विवश हॅूँ।" 33

डॉ. अम्बेडकर ने धर्मांतरण की आवश्यकता को स्पष्ट करने के लिए 'जनता' के 23 मई 1936 के अंक में अपने मटियामेट जीवन में नए प्रभात के लिए ही धर्मान्‍तरण की जरूरत शीर्षक लेख लिखा। उसमें उन्होंने कहा था, "मेरे माँ-बाप इस हिन्दू धर्म में रहे किन्तु उन्हें हिन्दू धर्म के नियमों के कारण शिक्षा से वंचित रहना पड़ा। इस धर्म ने उन्हें हथियार उठाने की अनुमति भी नहीं दी। उन्हें इस धर्म के नियमों के मुताबिक पर्याप्त रुपया-पैसा कमाने की अनुमति भी नहीं थी। इसलिए हमारे पूर्वजों को ये तीनों बातें हासिल नहीं हो सकीं। उच्च शिक्षा प्राप्त करते हुए मैं संस्कृत पढ़ना चाहता था। किन्तु उस समय वह बात धर्म-बन्धनों की वजह से मेरे लिए सम्भव नहीं हुई। किन्तु अब पढ़ना, धन कमाना और हथियार उठाना सम्भव हो गया है। ऐसी स्थिति में जिस धर्म ने हमारे पूर्वजों को गुलामी की स्थिति में रखा, अनपढ़ और गरीबी में रहने के लिए बाध्य किया, उस हिन्दू धर्म की आप परवाह क्यों करते हैं? अपने पूर्वजों की तरह उस स्वाभिमानशून्य परिस्थिति के रास्ते पर ही चलना हो तो आपको कोई पूछनेवाला नहीं है। आपकी कोई भी परवाह नहीं करेगा। इसी कारण आज धर्मान्तरण के प्रश्न का बड़ा महत्त्व है।" 34 उसी टिप्पणी में बाबा साहेब ने कहा था, "हिन्दू धर्म में रहने से आपको गुलामी से अधिक हासिल होनेवाला नहीं है। यदि मैं अछूत भी रहा तब भी हिन्दू समाज कोई व्यक्ति जो कर पाएगा, वह में आसानी से कर सकूंगा। मैं आज की स्थिति में हाईकोर्ट का जज बन सकता हूँ। विधिमंडल में मंत्री का पद भी मुझे मिल सकता है। किन्तु आप लोगों की इंसानियत के लिए मेरा धर्मान्तरण करना जरूरी हो गया है। आपके इस मटियामेट जीवन को स्वर्णिम दिन प्राप्त हों, इसीलिए मुझे धर्मान्तरण की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही है। आपकी स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए मेरे सहयोगी मित्रों की ओर से आपको निश्चित तौर पर मदद मिलेगी, इस बात की मुझे पूरी आशा है। आप लोगों को होशियार बनाने के लिए मुझे धर्मान्तरण करवाना है। अपने हितों के सवाल के लिए मैं एकदम निश्चिंत हूँ। मैं आज जो काम कर रहा हूँ, वह आप लोगों की भलाई के लिए है। आप मुझे भगवान मानते हैं। किन्तु मैं भगवान नहीं हूँ। मैं आपकी तरह ही एक इंसान हूँ। मुझसे आप लोगों की जो भी मदद होगी, वह मैं करने के लिए तैयार हूँ। मैंने यह निश्चय कर लिया है कि आप लोगों को आज की इस स्थिति से उबारना है। मैं अपने लिए कुछ नहीं कर रहा हूँ। आप अपनी जिम्मेदारी को पहचान लीजिए और मैं आपको जो रास्ता दिखाऊँ, उसी पर आप चलिए मतलब आपकी भलाई, आपकी होशियारी सफल होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।" 35

चुनावी राजनीति में अछूतों की भूमिका को लेकर डॉ. अम्बेडकर नकी स्पष्ट अवधारणा थी। उन्होंने 'जनता' के 4 जुलाई 1936 के अंक मेंअछूत समाज और चुनावी राजनीति शीर्षक टिप्पणी में लिखा था, "जो राजनीतिक सत्ता आप लोगों को हासिल हुई है, उसकी कल्पना शायद आप लोगों को नहीं होगी किन्तु ऊँची जाति के लोगों को उसके बारे में भलीभाँति पता है। इसलिए वे आपकी दाढ़ी पर हाथ लगाने में भी कोई शर्म महसूस नहीं करेंगे। उन लोगों में हमारे कल्याण के बारे में सोचनेवाले कौन हैं, इस पर विचार करके हमने अपने वोट दिए तो ऊंची जाति के जो लोग हमारे लिए लड़ते हैं, उन्हें हम चुनाव में मदद कर सकते हैं। इस तरह से अपना संगठन बढ़ सकता है।" 36 उसी टिप्पणी में बाबा साहेब ने कहा था, "अछूतों की कई जातियाँ हैं। अछूतों में महार जाति बड़े भाई की तरह है। इसलिए उन्हें सभी जाति के लोगों के साथ बन्धुता, अपनापन और समानता से व्यवहार करना चाहिए। उनके साथ सहयोग करने की उदारता दिखानी चाहिए। सभी सीटें आप अपने पास मत रखिए। अपने स्वार्थ के लिए आप लोगों को दूसरों को पन्द्रह सीटों में हिस्सेदार बनाना चाहिए। क्या इस नियम का पालन करने के लिए आप लोग तैयार हैं? यदि आप लोग तैयार हैं तो मैं राजनीति में आऊँगा। अन्यथा राजनीति में मेरी कोई रुचि नहीं है, इस बात को आप लोगों के सामने साफ तौर पर कह देना मेरे लिए आवश्यक है।" 37

डॉ. बाबासाहेब अम्‍बेडकर ने 13 अक्‍तूबर 1935 को धर्मान्‍तरण की घोषणा की थी। उसकी प्रतिक्रिया होने पर डॉ. अम्‍बेडकर ने 'जनता' के 15 अगस्त 1936 के अंक में एम. सी. राजा परिया के नाम से ही जिएँगे और परिया के नाम से ही मरेंगे शीर्षक टिप्पणी लिखी। उसमें उन्होंने लिखा था, "मद्रास के डिप्रेस्‍ड क्‍लासेस मिशन के प्रमुख रायबहादुर एम.सी. राजा ने धर्मान्‍तरण का विरोध किया था और उन्‍होंने अखबारों में अपना पत्र-व्‍यवहार प्रकाशित किया था। अछूतों के सिख धर्म स्वीकारने के लिए शंकराचार्य, डॉ. कुर्तकोटी और अन्य कई प्रमुख हिन्दू नेताओं ने अपनी स्वीकृति दे दी है। वास्तव में उन्होंने ही इस तरह की चेष्टा की कि अछूतों को सिख धर्म स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने वैसा करने के लिए मुझे भी उत्साहित किया। मैंने भी सिख धर्म पसन्द किया। इसका कारण यही है कि हिन्दू संस्कृति के भविष्य की जिम्मेदारी कुछ न कुछ मेरे सिर पर है, इस बात की मुझे समझ थी। प्रकाशित किए गए पत्र-व्यवहार पर मेरा निवेदन पढ़ने के बाद श्री गांधी, श्री राजा और श्री राजगोपालाचारी आदि लोगों ने धर्मान्तरण के सवाल पर जो नीति अख्तियार की है, वह हिन्दू समाज के हितों के अनुकूल है या नहीं, यह तय करने का काम मैं हिन्दू जनता पर छोड़ रहा हूँ।" 38

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि बुद्ध केसिद्धान्तों को अपनाकर ही हिन्दू समाज में राजनीतिक और सामाजिक रक्तशुद्धि संभव है। उन्होंने 'जनता' के 7 मई, 1941 के अंक में लोकतन्त्र की स्थापना के लिए बुद्ध-जयन्ती का राजनीतिक महत्त्व शीर्षक टिप्पणी में लिखा था,"आज भारत राजनीतिक दृष्टि से बीमार व्यक्ति की भांति है। हिन्दुस्तान के नाम का उच्चारण सुनते ही पेट फूले, हाथ-पाँव सूखे हुए, चमकहीन चेहरे, धंसी हुईं आँखें, हड्डियों के कंकाल जैसे व्यक्ति की तस्वीर आँखों के सामने उभरती है। इसमें लोकतंत्र की गाड़ी चलाने की सामर्थ्य नहीं है। लेकिन लोकतंत्र की गाड़ी चलाने की इच्छा हो तो उसके लिए ताकत का होना भी आवश्यक है। और उस तरह की ताकत बिना दवा के नहीं हो सकती। लेकिन दवा लेने से क्या लाभ? सभी लोग जानते हैं कि किसी प्रकार की दवा लेने के पहले रोगी के प्रकोष्ठ को साफ रखना पड़ता है, वहाँ का मैला साफ करना पड़ता है। उसके बिना दवा अपना प्रभाव नहीं दिखाती। हमारे हिन्दू लोगों का प्रकोष्ठ शुद्ध नहीं है। उसमें ब्राह्मण धर्म का कई सालों का मैल चिपककर रुका पड़ा है। जो वैद्य इस मैल को साफ कर बाहर निकालेगा, वही इस देश में लोकतन्त्र की स्थापना के लिए सहायक हो सकता है। और उस तरह का वैद्य बुद्ध के अलावा दूसरा कोई नहीं है। हिन्दुओं की रक्तशुद्धि राम की जयन्ती मनाने से नहीं होगी, कृष्ण की जयन्ती मनाने से नहीं होगी या गांधी की जयन्ती मनाने से भी नहीं होगी। राम, कृष्ण और गांधी ब्राह्मण धर्म के पक्षपोषक हैं। लोकतन्त्र की स्थापना के लिए उनका कोई उपयोग नहीं है। अगर उपयोग है तो वह केवल बुद्ध का हो सकता है।" 39

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि अछूतों को समानता का अधिकार देकर ही राष्ट्रीय सरकार बननी चाहिए। उन्होंने 'जनता' के 2 दिसंबर 1944 के अंक में हमें दूर रखकर राष्ट्रीय सरकार असम्‍भव शीर्षक टिप्पणी में कहा था, "भारत की स्वाधीनता के बारे में अछूतों में कोई आस्था नहीं, इस प्रकार का असत्य, घिनौना दुष्प्रचार कांग्रेस और कथित राष्ट्रवादी अखबारों की ओर से किया जाता है। हम लोगों पर इस तरह के असत्य आरोप लगाए जाते हैं कि हम राष्ट्र-विरोधी, देश को डुबानेवाले हैं। सच्चाई यह है कि अछूतों को इंसानियत का व्यवहार चाहिए, समानता चाहिए। उन्हें दूसरों की बराबरी के राजनीतिक अधिकार चाहिए, इसके लिए हमारा जो आन्दोलन चल रहा है, वह यदि देश को डुबानेवाला है ऐसा यदि उन्हें लगता है तो उनकी इस सोच के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है। अछूतों को अन्य किसी भी जाति की तुलना में स्वतन्त्रता के प्रति कम आस्था नहीं है। बल्कि वे उनसे अधिक आस्थावान हैं। किन्तु देश की स्वतन्त्रता के साथ हमें अपने समाज की स्वतन्त्रता भी चाहिए।"40

डॉ. अम्बेडकर ऐसी स्वतन्त्रता चाहते थे जिसमें दलितों को भी समान अधिकार मिले। उन्होंने 'जनता' के 25 नवंबर 1944 के अंक में हमें समानता पर आधारित स्वतन्त्रता चाहिए शीर्षक टिप्पणी में लिखा था,"मैं राष्ट्रीय सरकार का शत्रु नहीं हूँ। मैं स्वराज्य का भी विरोध नहीं कर रहा हूं। मैं स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं हूँ। बल्कि देश को जिस बात का आश्वासन दिया जा रहा है, वह स्वतन्त्रता, शिक्षा और समृद्धि मुझे भी मिलेगी, इस बात का विश्वास यदि मुझे दिलाया जाय तो उस स्वतन्त्रता के लिए, उस राष्ट्रीय भावना के लिए मैं कभी भी लड़ने के लिए तैयार हूँ। लेकिन यदि इस सारे लम्बे-चौड़े दर्शन का नतीजा यही होनेवाला हो कि उसकी सीमाएँ सिर्फ एक शासन करनेवाले वर्ग तक ही सीमित रहें और यह शासनाधिकार उस वर्ग की शक्ति को बढ़ाकर अन्य लोगों के अधिकार छीननेवाली हो तो क्या मतलब रह जाता है।" 41

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि अछूतोद्धार के बाद ही वास्तविक स्वराज आएगा। उन्होंने 'जनता' के 10 फरवरी 1945 के अंक में अपनी गुलामी का मूल कारण हिन्दू धर्म शीर्षक टिप्पणी में लिखा था, "मैं अछूत समाज को राजनीतिक अधिकार दिलवाने के लिए काम कर रहा हूँ। मुझसे कई लोग पूछते हैं कि मैं सम्पूर्ण देश की स्वतन्त्रता के लिए काम क्यों नहीं कर रहा हूँ? पंडित जवाहरलाल नेहरू को देश के लिए हजारों कॉलेज छात्र मिल सकते हैं। लेकिन अछूतों के कार्य के लिए पंडित नेहरू की बात कोई कॉलेज छात्र सुनने के लिए तैयार नहीं है। फिर इस कार्य को कौन करेगा? देश का काम करने के लिए बहुत लोग हैं। अछूतों के लिए हमारे अलावा कोई नहीं है, इसलिए मैं इसी काम को करता रहूँगा। जिस कार्य में आठ करोड़ पददलित, उत्‍पीड़ि‍त लोगों का उत्‍थान है, वही असली स्‍वराज्‍य हासिल करने का कार्य है।" 42

डॉ. अम्बेडकर ने कई मुद्दों को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर कांग्रेस की खबर ली थी। उन्होंने 'जनता' के 12 मई 1945 के अंक में कांग्रेस-कम्युनिस्टों को आज ही हमसे इतनी हमदर्दी क्यों हुई? शीर्षक टिप्पणी में लिखा था,"स्वराज्य का मतलब क्या है इस बात को हम अच्छी तरह जानते हैं। कम्युनिस्‍ट या अन्य कोई बताएँगे, तब हमारी समझ में आएगा, ऐसा नहीं है। हम लोग कांग्रेस को राजनीति पढ़ा सकते हैं। हम अपने प्रयासों से और अपनी ताकत से देश के लिए और अपने लिए जो कुछ करना चाहते हैं, उसे स्वतन्त्र रूप से करेंगे। हम लोगों को किसी के भी सहयोग की कोई दरकार नहीं है। बहुत दिनों से मैं यह सुन रहा हूँ कि इस देश में हिन्दू और मुस्लिम समझौता करके राष्ट्रीय सरकार स्थापित करने की चेष्टा कर रहे हैं। उन्होंने 40 प्रतिशत मुस्लिम, शेष अन्य ऐसा फार्मूला किन सिद्धान्तों के आधार पर बनाया है, यह बात अभी भी मेरी समझ में नहीं आई है। 22 प्रतिशत मुस्लिमों को 40 प्रतिशत किया गया, अछूत और सिख 30 प्रतिशत होते हुए उन्हें 20 प्रतिशत दिखाया गया! यह कहाँ का न्याय है? मुझे हिन्दू लोगों पर दया आती है। हिन्दू लोगों को अच्छी तरह ज्ञात है कि अछूत समाज गरीब, उत्पीड़ित और पिछड़ा हुआ समाज है, ऐसी स्थिति होने पर उन्हें सिर्फ 20 प्रतिशत ही और जो राजवंश से सम्बन्धित हैं, उन्हें 40 प्रतिशत, क्या सचमुच इसे न्याय कहा जाएगा?" 43

डॉ. अम्बेडकर ऐसा संविधान चाहते थे जिसमें अछूतों की सुरक्षा सुनिश्चित हो। उन्होंने साप्ताहिक 'जनता' के 27 अप्रैल, 1946 के अंक में अछूतों के स्वतन्त्र गाँव जरूरी हैं शीर्षक टिप्पणी मेंकहा था, "दक्षिण अफ्रीका के कई समूहों की तरह ही भारत में अछूत वर्ग हैं। जिस प्रकार अफ्रीकन संविधान में उन समूहों को सुरक्षा प्रदान की गई है, उसी प्रकार की सुरक्षा हमें भारतीय संविधान में मिलनी चाहिए। हिन्दी अखबार और खास तौर पर विदेशी पत्रकार अछूतों की भूमिका के बारे में दुष्प्रचार करते रहते हैं। गांधी कितनी भी चेष्टा करें किंतु वे सवर्ण हिन्दुओं के मन-मस्तिष्क से अछूतपन को समाप्त नहीं कर सकते।"44डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि ऐसा उपक्रम होना चाहिए कि अछूत स्वाभिमान समेत जी सकें। उन्होंने साप्ताहिक 'जनता' के 26 नवम्बर, 1949 के अंक में अपना संगठन स्वतन्त्र ही होना चाहिए शीर्षक टिप्पणी में कहा था, "हम लोग स्वतन्त्र संगठन के बिना स्वाभिमान के साथ नहीं रह सकते। फिलहाल जो छोटे-बड़े राजनीतिक पक्ष दिखाई देते हैं, उनके पास अछूत समाज के लिए कोई विशेष कार्यक्रम नहीं है।" 45

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि समाज बौद्ध धर्म के बिना नहीं बचेगा। उन्होंने साप्ताहिक 'जनता' के 20 जनवरी, 1951 के अंक में बौद्ध धम्‍म पुन: इस देश का धम्‍म होगा शीर्षक टिप्पणी में कहा था, "समाज धर्म के बिना बचेगा नहीं और वह धर्म बौद्ध धर्म ही होना चाहिए। यदि समानता, प्रेम, भाईचारा आदि बातें दुनिया के उत्थान के लिए आवश्यक हैं तो वे बातें बौद्ध धर्म से ही मिल सकती हैं। मैंने बीस साल तक हर धर्म का अध्ययन किया है और सभी धर्मों का अध्ययन करने के बाद मेरी यह धारणा बनी है कि सारी दुनिया को बौद्ध धर्म को ही अपनाना चाहिए।" 46 उसी टिप्पणी में अम्बेडकर ने जन्मजात अपराधी करार दिए गए आदिवासियों का सवाल पूरी शिद्दत से उठाया था। 1871 में ब्रिटिश सरकार ने क्रिमिनल ट्राइब ऐक्ट पास कर कई आदिवासियों को अपराधी के रूप में अधिसूचित किया अपराधी आदिवासी अधिनियम के तहत जिन आदिवासियों को अपराधी आदिवासी घोषित किया गया, उन्हें अपराध नहीं करने पर भी पकड़ लिया जाता था। अंततः चोरी-मारपीट ही उनके जीवन निर्वाह का उपाय रह गई। अम्बेडकर ने पूछा था, "करीब करीब पाँच -सात करोड़ लोगों को चोरी-मारपीट करने के अलावा जीवन-निर्वाह का अन्य कोई रास्ता क्यों नहीं मिला? अछूतपन का विधान करनेवाला दुनिया में एक भी धर्म नहीं है। फिर उस समय के और आज के सुसंस्कृत नेताओं ने क्यों प्रयास नहीं किया? चोरी, मारपीट करके अपना जीवन-निर्वाह करनेवाली जाति जिस संस्कृति में पैदा होती है, क्या उस संस्कृति को सुसंस्कृति कहा जा सकता है? इस तरह की जातियों को सुधारने की लोगों ने चेष्टा नहीं की। इसका अर्थ साफ है कि उस संस्कृति में कुछ-न-कुछ दोष तो निश्चित तौर पर रहा ही है। इस हिन्दू धर्म में पाँच करोड़ अछूत और पाँच -दस करोड़ लोग चोरी, मारपीट करनेवाले क्यों हैं? क्योंकि इस धर्म के मूल में ही दोष है।" 47 डॉ. अम्बेडकर ने इस धारणा का विरोध किया कि धर्मनिरपेक्षता धर्म को समाप्त कर देती है। उन्होंने साप्ताहिक 'जनता' के 10 फरवरी, 1951 के अंक में सिविल कोड की बात करनेवालों की नीयत साफ नहीं शीर्षक टिप्पणी मेंकहा था कि धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्म को नष्ट नहीं करता। धर्मनिरपेक्षता का आशय इतना ही है कि सरकार किसी धर्म को जनता पर थोप नहीं सकती और इसीलिए सरकार धार्मिक भावनाओं पर चोट नहीं कर सकती।"48डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के विरोध में बहुजनों को अपने जीवन में बुद्ध की शिक्षा अपनानी चाहिए। उन्होंने साप्ताहिक 'जनता' के 26 मई, 1951 के अंक में 'बुद्ध की शिक्षा को जीवन में अपनाइए' शीर्षक टिप्पणी मेंकहा था कि मैं सभी हिन्दुओं से यही कहना चाहता हूँ कि उन्हें इस चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को पूरी तरह से त्याग देना चाहिए और पुरानी मान्यताओं को समूल समाप्त कर देना चाहिए। उसी टिप्पणी में बाबा साहेब ने लिखा था, "बुद्ध धर्म से नफरत करनेवाले ब्राह्मणों से मैं पूछना चाहता हूँ कि बुद्ध को प्रारम्भ में जो शिष्य मिले वे कौन थे? उसमें नब्बे प्रतिशत तो ब्राह्मण ही थे।" 49

अम्बेडकर अपने पत्रकारीय लेखन में अछूतों के प्रश्नों को एक नैतिक आवेग के साथ उठाते थे। उनके समाचार पत्र भी यही काम करते थे। उदाहरण के लिए 'जनता' के 23 अप्रैल 1955 के संस्करण में सोशल सर्विस विभाग के मंत्री जातिवादी हैं शीर्षक खबर में बताया गया है कि विधायक एन. डी. नेरलीकर ने आरोप लगाया है कि हैदराबाद की सरकार ने अस्पृश्यता उद्धार के लिए अलग से बजट आबंटित किया है किंतु अछूत विद्यार्थियों के लिए उस धन का समुचित उपयोग नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि संबंधित विभाग के मंत्री जातिवाद से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। इसी अंक में डॉ. बाबा साहेब आंबेजकरांचें सणसणीत उत्तर शीर्षक खबर में बताया गया है कि श्री एन. शिवराज कानूनन फेडरेशन के अध्यक्ष जरूर थे किंतु संगठन पर जब भी संकट आया तो अंबेडकर ने ही उसे उबारा। 'जनता' के 30 अप्रैल 1955 के संस्करण में अस्पृश्य शिक्षकाचा अमानुष छल शीर्षक खबर में कहा गया है कि निलंगा के हसूरी गांव के प्राथमिक विद्यालय में संमाजीराव कांबले नामस अछूत शिक्षक के आने पर अछूत विद्यार्थियों को बहुत लाभ मिल रहा है किंतु सवर्ण उस शिक्षक को प्रताड़ित कर रहे हैं। उस खबर में स्कूल शिक्षक पर हो रहे अन्याय को अमानवीय बताया गया है।

'जनता' के 28 मई 1955 के अंक में जनता में विश्व में यदि ईश्वर होता तो अस्पृश्यता नहीं रहती शीर्षक से समता सैनिक दल के मुंबई प्रदेश के संघचालक श्री एम. एम. ससालेकर का वक्तव्य प्रकाशित किया गया है। उसमें ससालेकर ने कहा है कि सभी को एकसमान पुत्र की तरह देखने वाले किसी भी ईश्वर ने हमारे ऊपर होने वाले सामाजिक अन्याय को दूर नहीं किया। ईश्वर होता तो वह यह अन्याय दूर करता। यह अन्याय मानव निर्मित है। इस अन्याय से अछूतों को बचाने ईश्वर नहीं, डॉ. अंबेडकर आए। उनके अलावा कोई भी हमारी मदद करने नहीं आया। 'जनता' के 4 जून 1955 के अंक में 'स्पृश्य समाज के कुएं पर पानी पीने से अस्पृश्य लोगों की जूतों से पिटाई की गई' शीर्षक से खबर छपी है। यह घटना सातारा के माण तहसील की है। इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा की गई है। 'जनता' के 11 जून 1955 के अंक में सातारा जिले के 'आरडगांव में अस्पृश्य लोग पीने के पानी को लेकर परेशान' शीर्षक खबर छपी है। उसमें बताया गया है कि अछूतों के सामने पीने के पानी की गंभीर समस्या पैदा हो गई है जिसके कारण अछूत लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं। 'जनता' के 25 जून 1955 के अंक में मंदिर और तालाब में प्रवेश के लिए अछूतों का सत्याग्रह शीर्षक खबर छपी है जिसमें बताया गया है कि अकोला जिले के बालापुर तहसील के निमकर्दा गांव के अछूत मंदिर में प्रवेश पाने तथा तालाब के पानी का उपयोग करने के अधिकार को हासिल करने के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं। उनके आंदोलन को मनुष्यता के हक की लड़ाई करार दिया गया है। 'जनता' के 2 जुलाई 1955 के अंक में सिर्सि गाँव में भीषण आगजनी में अस्पृश्य समाज के घर क्षतिग्रस्त शीर्षक खबर प्रकाशित हुई है। उसमें बताया गया है कि नागपुर जिले के उमरेड में 5 जून को आए तूफान के कारण अछूतों के 25 मकान जलकर राख हो गए जिसमें 15 हजार रुपये का नुकसान हुआ। खबर के अनुसार पड़ोस में जल रही ईंट की भट्टी से आग भड़की।

इस तरह देखा जा सकता है कि अछूतों के सुख-दुःख की हर खबर 'जनता' में प्रकाशित होती थी। अंबेडकर ने देखा कि हिंदू समाज अछूतों के प्रति भेदभाव कम नहीं कर रहा तो उन्होंने बौद्ध धर्म की तरफ रुख किया। उन्होंने साप्ताहिक 'जनता' के 24 मार्च,1956 के अंक में अछूतों को शहरों में आना चाहिए शीर्षक टिप्पणी मेंकहा था कि अन्य किसी भी धर्म से बौद्ध धर्म श्रेष्ठ है। इसलिए मेरी इच्छा है कि आप सभी लोग इस वर्ष मेरे साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले लें। मैं इस सम्बन्ध में आप लोगों पर कोई दबाव नहीं डालूँगा। यह आपकी इच्छा का सवाल है। लेकिन मेरे बौद्ध धर्म स्वीकार के बाद मैं अछूत नहीं रहूँगा।"50डॉ. अम्बेडकर मानते थे ब्राह्मणवादियों के जाल में फंसने का प्रभाव बुद्ध धर्म पर पड़ा। उन्होंने साप्ताहिक 'जनता' के 27 अक्तूबर, 1956 के अंक में बौद्ध धम्म का पतन क्यों हुआ? शीर्षक टिप्पणी मेंकहा था कि ब्राह्मणों के घरों में पैदा होता था, वही पुरोहित हो जाता था। उसे विद्याध्ययन, सदाचरण या अन्य किसी दीक्षा की आवश्यकता नहीं थी। इसलिए ब्राह्मण धर्म पर हमला होने के बाद, उनके मन्दिर नष्ट होने के बाद भी, ब्राह्मण पैदा होते रहे और वे अपने-आपको ब्राह्मणधर्मी ही कहते रहे। बौद्ध भिक्खुओं का अस्तित्व समाप्त हो जाने के कारण सामान्य लोग ब्राह्मणों के जाल में फँस गए।" 51

'जनता' 24 नवंबर 1930 से 28 जनवरी 1956 तक निकलता रहा। उसके बाद उसका नाम बदलकर प्रबुद्ध भारत कर दिया गया। 'प्रबुद्ध भारत' का प्रवेशांक चार फरवरी 1956 को निकला। 'प्रबुद्ध भारत' के हर अंक में पत्रिका के शीर्ष की दूसरी पंक्ति में लिखा होता था- डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रस्थापित। प्रवेशांक के पहले पृष्ठ पर छपी 'श्री नेहरू हटवादी, मूर्ख की गुलाम' शीर्षक खबर में कहा गया था कि कोई भी कारण स्पष्ट न करते हुए मुंबई को केंद्रशासित प्रदेश बनाने की घोषणा करनेवाले नेहरू हटवादी हैं, मूर्ख या गुलाम? इसे लेकर मोरारजी का विरोध सही है। विरोध के बावजूद कांग्रेस या नेहरू की आंख खुली हो, ऐसा नहीं लगता। प्रवेशांक में 'प्रबुद्ध भारत व त्यांचे कार्य' शीर्षक टिप्पणी में कहा गया कि आंदोलन के रूप में बहुजन समाज को प्रबुद्ध बनाने का जो काम शुरू किया गया, उसे जारी रखने के लिए अशिक्षा, अज्ञान को मिटाना होगा। आज की तारीख में हिन्दू धर्म अज्ञान का शिकार है, उस अज्ञानता को दूर करना 'प्रबुद्ध भारत' का कार्य होगा। 52 प्रवेशांक में ही 'अस्पृश्य समाजाची गेलीं तीस वर्षे' शीर्षक टिप्पणी में बहुजनों को अधिकार दिलाने के लिए और उनके स्वाभिमान की रक्षा के लिए, उन्हें संगठित और शिक्षित करने के लिए अम्बेडकर के नेतृत्व में तीन दशकों के दौरान हुए कार्यों का विवरण दिया गया है। 'प्रबुद्ध भारत' के 11 फरवरी 1956 के अंक में प्रथम पृष्ठ की मुख्य खबर का शीर्षक है-कांग्रेस वर्किंग कमिटींत बुद्ध वंदनेचा ठराव मंजूर। उसमें सवाल खड़ा किया गया है कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी में बुद्ध वंदना गाने को स्वीकृति देना दिखावा तो नहीं। इसी अंक में 'यशस्वी मार्गदर्शन' शीर्षक संपादकीय में लिखा गया कि पूरी दुनिया के लिए गौतम बुद्ध ही यथार्थ मार्गदर्शक हैं। 'प्रबुद्ध भारत' के 18 फरवरी 1956 के अंक में धर्म-बौद्ध धर्म-विश्व धर्म शीर्षक लेख में कहा गया है कि बौद्ध धर्म ही विश्व धर्म है। धर्म को लेकर दुनिया में जितनी ही व्याख्याएं हुई हैं और शास्त्रों की जितनी कसौटियां है, उन पर केवल बौद्ध धर्म खरा उतरता है। 53 'प्रबुद्ध भारत' के 28 अप्रैल 1956 के अंक में प्रथम पृष्ठ की खबर का शीर्षक है बाबा साहब हे थोर देशभक्त आहेत। उसमें बैरिस्टर राजा भाउ खोब्रागढ़े ने बाबा साहब को बड़ा देशभक्त बताते हुए कहा है कि यही बात गांधीजी ने भी कही थी। 'प्रबुद्ध भारत' के पांच मई 1956 के अंक में दलित समाज व स्त्री शिक्षण शीर्षक पार्वती बाई पाचोडे का लेख छपा है जिसमें कहा गया है कि स्त्रियों की शिक्षा के बगैर समाज की उन्नति नहीं हो सकती। स्त्रियों का काम केवल खाना बनाना और बच्चों को पालना नहीं है। अभिभावकों को चाहिए कि वे बेटे व बेटी में फर्क न करें। बेटियों को पढ़ाएं। 54 'प्रबुद्ध भारत' के 12 मई 1956 के अंक में 'बौद्ध धर्मच उपाय' शीर्षक संपादकीय में बताया गया है कि जीवन की उत्पत्ति के बारे में सारे सवालों के जवाब बौद्ध धर्म में मिलते हैं। इसलिए भी वह धर्म सर्वोत्तम है। 'प्रबुद्ध भारत' के 2 जून 1956 के अंक में पहले पृष्ठ की खबर का शीर्षक है बुद्ध धर्माची लाट परतणाप नाहीं। उसमें बताया गया है कि बौद्ध धर्म की लहर रुकनेवाली नहीं। 'प्रबुद्ध भारत' के 2 जून 1956 के अंक में बौद्ध धर्म व हिंदू धर्म एकच आहेत काय? शीर्षक संपादकीय में कहा गया है कि बौद्ध धर्म व हिंदू धर्म को एक बताने का अर्थ है आग व पानी, अंधकार व प्रकाश को एक बताना। 'प्रबुद्ध भारत' के 13 अक्टूबर 1956 के अंक में प्रथम पृष्ठ पर बौद्ध दीक्षा विधिस लाखोनी हजार रहा शीर्षक खबर में बाबा साहेब के बौद्ध दीक्षा लेने के अवसर पर लाखों लोगों के उपस्थित रहने का आह्वान किया गया है। 'प्रबुद्ध भारत' के 10 नवंबर 1956 के अंक में धर्मांतर-हृदय परिवर्तन शीर्षक संपादकीय में कहा गया है कि 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बाबा साहेब और पांच लाख अन्य अछूतों द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा लेना ऐतिहासिक अवसर था जिसमें देशभर के लोग जुटे थे। बाबा साहेब ने 21 साल पहले प्रतिज्ञा ली थी कि मैं हिंदू धर्म में जन्मा किंतु हिंदू धर्म में मरूंगा नहीं। उस प्रतिज्ञा को बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर उन्होंने पूरा किया। 55

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि सावधानीपूर्वक संविधान को नहीं अपनाया गया तो देश का विनाश नहीं रोका जा सकेगा। उन्होंने साप्ताहिक 'प्रबुद्ध भारत' के 27 अक्तूबर, 1956 के अंक में 'ढकोसलेबाजी से देश का विनाश होगा' शीर्षक टिप्पणी में शीर्षक टिप्पणी मेंकहा था, "हम लोगों ने नए संविधान को स्वीकार किया है। हम लोगों को इस संविधान प्रणाली का अनुभव नहीं है। उसे इस देश में सतर्कता से नहीं अपनाया गया तो इस देश का विनाश होगा। केवल सफेद टोपियों से काम नहीं चलेगा सारे राष्ट्र को इकट्ठा बैठकर राजनीति का अध्ययन करना चाहिए। अकेले नेहरू को ही अक्ल है, ऐसी बात नहीं। इस देश में कई लोग नेहरू से भी अधिक बुद्धिमान हैं। जब मैं मन्त्रिमंडल में था उस समय सप्ताह में एक बार कैबिनेट की बैठक होती थी। वहाँ मैंने नेहरू को अच्छी तरह से परखा और देखा है। वे खोखले तरबूज की तरह हैं।" 56

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि सार्वजनिक कामों में लगे लोगों को जनता के हर सुख-दुःख का हिस्सेदार होना चाहिए। उन्होंने साप्ताहिक 'प्रबुद्ध भारत' के 27 अक्तूबर, 1956 के अंक में 'समाज में एकता ही सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण' शीर्षक टिप्पणी में कहा था, "अब उम्मीदवार चुनने का काम लोगों को ही करना चाहिए। आपको जनता में काम करना चाहिए। उनकी कठिनाइयों के बारे में आपको अपनी ताकत के मुताबिक आवाज बुलन्द करनी चाहिए। आप लोगों को उनके सुख-दुख में शामिल होने का प्रयास करना चाहिए। मैं भंडारा के चुनाव में हार गया। इस बात का मुझे कभी दुख नहीं हुआ। इस चुनाव में मुझे काफी वोट मिले। अपने वोटों को छोड़ दें तो अन्य समाज के लोगों ने भी मुझे वोट दिए हैं। यह बात मेरे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। मैं हार-जीत की कभी परवाह नहीं करता।"57अम्बेडकर मानते थे कि लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाकर ही दुनिया में कोई परिवर्तन संभव है। उन्होंने 'प्रबुद्ध भारत' के 4 अगस्त 1956 के अंक में लिखा था, "बुद्ध ने दुनिया को एक महान बात बताई है। बुद्ध का कहना है कि मनुष्य की मानसिकता में परिवर्तन आए बगैर और दुनिया की मानसिकता में बदलाव आए बगैर दुनिया में सुधार, परिवर्तन या उत्थान सम्भव नहीं है। बुद्ध की शिक्षा के मुताबिक मनुष्य की मानसिकता में परिवर्तन आया और उसके मुताबिक उसने साम्यवादी विचारधारा को अपनाकर उस पर ईमानदारी के साथ अमल किया तथा उसे जीवन में उतारने का प्रयास किया तो उसे वह निश्चित तौर पर अंजाम दे सकता है। उसे स्थायित्व प्रदान कर सकता है।" 58 उसी टिप्पणी में बाबा साहेब ने कहा था, "आप लोगों को साम्यवाद के प्रभाव से घबराने की कोई बात नहीं है। उससे गुमराह होने की कोई बात नहीं है या हड़बड़ाने की भी बात नहीं है। यदि आप लोगों ने बौद्ध विचारधारा और दर्शन का एक दशांश हिस्सा भी अपने जीवन में उतार लिया तो साम्यवाद जो कुछ निर्माण करना चाहता है, वह आप लोग करुणा, न्याय और सद्भावना के बल पर निर्माण कर सकते हैं, इस बात में बिल्कुल सन्देह नहीं है।" 59

'मूकनायक', 'बहिष्कृत भारत', 'समता', 'जनता' और 'प्रबुद्ध भारत' में प्रकाशित अम्बेडकर की तलस्पर्शी संपादकीय टिप्पणियां भारत की समाज व्यवस्था से मुठभेड़ के रूप में देखी जानी चाहिए। अम्बेडकर किसी विषय पर तटस्थ पर्यवेक्षक की तरह नहीं लिखते थे, अपितु हर बहस में हस्तक्षेप करते हुए यथास्थिति बदलने का प्रयास करते थे। अम्बेडकर ने धर्म, जाति व वर्ण व्यवस्था की विसंगतियों की जहाँ गहरी छानबीन की, वहीं उस सामाजिक ढाँचे की परख भी की, जिसके अन्दर ये वर्ण व्यवस्था काम करती हैं। इस लिहाज से जाति-वर्ण व्यवस्था पर अम्बेडकर का मूल्यांकन सटीक है और इसीलिए विश्वसनीय दस्तावेज भी। इस दस्तावेज का मूल्य तब और बढ़ जाता है, जब पूरे परिदृश्य का जायजा व्यापकता और गहराई से लेते हुए सम्बन्धित सभी मुद्दों को उभारने की कोशिश की गई हो। इसीलिए अम्बेडकर का लेखन आज भी उतना ही प्रेरणास्पद व प्रासंगिक है जितना उनके समय में था। तथ्य है कि अम्बेडकर के समय भी मीडिया में जातिगत पूर्वग्रह था और आज भी है। मीडिया के ढांचे के जातिगत पूर्वग्रहों से प्रभावित होने तथा मीडिया संस्थानों में उच्च पदों पर सवर्णों का कब्जा होने से कई बार दलितों के साथ होनेवाले अन्याय की खबरों की अनदेखी होती है। यानी मीडिया उत्पादों पर सामाजिक पृष्ठभूमि का प्रभाव सामग्री के चयन, प्रकाशन तथा प्रसारण में देखा जाता है। जाहिर है कि जब तक मीडिया में हरेक तबके की यथोचित भागीदारी नहीं होगी, सूचना का एकपक्षीय, आग्रहपूर्ण और असंतुलित प्रसार जारी रहेगा। अम्बेडकर की पत्रकारिता समाज सुधार की पत्रकारिता है जो हमें यही सिखाती है कि जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग आदि शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति समाज को आगाह कर उसे इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने की चेष्टा ईमानदारी से की जानी चाहिए। इसी के समांतर मुख्यधारा के सभी पक्षों को दलित मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाने का यत्न भी किया जाना चाहिए। अम्बेडकर की पत्रकारिता स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए अनवरत रचनात्मक संघर्ष करती रही। इन्हीं तीन शब्दों- स्वतंत्रता, समता और बंधुता में बाबा साहेब के जीवन दर्शन का सार निहित है।

संदर्भ

1.'मूकनायक', 31 जनवरी 1920

2. वही

3. 'मूकनायक', 28 फरवरी, 1920

4. 'मूकनायक', 27 मार्च 1920

5. 'मूकनायक', 14 अगस्त 1920

6. 'बहिष्‍कृत भारत', 3 अप्रैल,1927

7. वही

8. 'बहिष्‍कृत भारत', 22 अप्रैल, 1927

9. वही

10. 'बहिष्‍कृत भारत', 6 मई, 1927

11. 'बहिष्‍कृत भारत', 20 मई, 1927

12. 'बहिष्‍कृत भारत', 3 जून, 1927

13. 'बहिष्‍कृत भारत', 18 जनवरी 1929

14. 'बहिष्‍कृत भारत', 1 फरवरी 1929

15. 'बहिष्‍कृत भारत', 15 मार्च 1929

16. 'बहिष्‍कृत भारत', 12 अप्रैल 1929

17. वही

18. 'बहिष्‍कृत भारत', 21 जून 1929

19. 'बहिष्‍कृत भारत', 12 जुलाई 1929

20. 'बहिष्‍कृत भारत', 4 अक्टूबर 1929

21. 'समता', 13 जुलाई 1928

22. 'समता', 10 अगस्त 1928

23. 'समता', 24 अगस्त 1928

24. 'समता', 5 अक्टूबर 1928

25. 'समता', 19 अक्टूबर 1928

26. 'जनता', 15 दिसंबर 1930

27. 'जनता', 12 जनवरी 1931

28. 'जनता', 25 जून 1932

29. वही

30. 'जनता', 24 सितंबर 1932

31. वही

32. वही

33. 'जनता', 16 मई 1936

34. 'जनता', 23 मई 1936

35. वही

36. 'जनता', 4 जुलाई 1936

37. वही

38. 'जनता', 15 अगस्त 1936

39. 'जनता', 7 मई, 1941

40. 'जनता', 2 दिसंबर 1944

41. 'जनता', 25 नवंबर 1944

42. 'जनता', 10 फरवरी 1945

43. 'जनता', 12 मई 1945

44. 'जनता', 27 अप्रैल, 1946

45. 'जनता', 26 नवम्बर, 1949

46. 'जनता', 20 जनवरी, 1951

47. वही

48. 'जनता', 10 फरवरी, 1951

49. 'जनता', 26 मई, 1951

50. 'जनता', 24 मार्च,1956

51. 'जनता', 27 अक्तूबर, 1956

52. 'प्रबुद्ध भारत', 04 फरवरी 1956

53. 'प्रबुद्ध भारत', 18 फरवरी 1956

54. 'प्रबुद्ध भारत', 05 मई 1956

55. 'प्रबुद्ध भारत', 10 नवंबर 1956

56. 'प्रबुद्ध भारत', 27 अक्तूबर, 1956

57. 'प्रबुद्ध भारत', 27 अक्तूबर, 1956

58. 'प्रबुद्ध भारत', 4 अगस्त 1956

59. वही

सहायक ग्रंथ

1. मून, बसंत (संपादन,1990), डा. बाबा साहेब आंबेडकर यांचे बहिष्कृत भारत आणि मूकनायक, मुंबईः शासन मुद्रण, महाराष्ट्र शासन

2. गायकवाड, प्रदीप (संपादन, 2020), डॉ. बाबा साहेब आंबेडकरांचे मूकनायक, नागपुरः समता प्रकाशन

3. गायकवाड, प्रदीप (2006), समाज समता संघाचे पाक्षिक मुखपत्र समता, नागपुरः समता प्रकाशन

4. गायकवाड, प्रदीप (2009), जनहित प्रवर्तक साप्ताहिक पत्र जनता, नागपुरः समता प्रकाशन

5. गायकवाड, प्रदीप (2016), जनहित प्रवर्तक साप्ताहिक पत्र जनता, नागपुरः समता प्रकाशन

6. गायकवाड, प्रदीप (2010), अखिल भारतीय दलित फेडरेशनचें मुखपत्र प्रबुद्ध भारत, नागपुरः समता प्रकाशन


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हिंदी समय में कृपाशंकर चौबे की रचनाएँ